गुरु तेग बहादुर पर निबंध
गुरु तेग बहादुर का परिचय
गुरु तेग बहादुर सिखों के नौवें गुरु ही नहीं बल्कि एक बहुत बड़े और सच्चे धर्म रक्षक भी थे। उन्होंने सिख धर्म की स्थापना की तथा सन् 1665 से सन् 1675 तक औरंगजेब द्वारा हत्या किए जाने की अवधि तक सिखों के गुरु के रूप में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वह परम ज्ञानी, आध्यात्मिक, विद्वान और कवि भी थे। उनके 115 गीत सिख धर्म के मुख्य ग्रंथ श्री गुरु वगैरह ग्रंथ में सम्मिलित हैं। वह एक राजसी तथा उग्र योद्धा थे। औरंगजेब के हुक्म पर गुरु तेग बहादुर जी को दिल्ली के चांदनी चौक पर सर कलम कर दिया गया था।
गुरु तेग बहादुर के व्यक्तिगत जीवन
प्रारंभिक जीवन
गुरु तेग बहादुर जी का विवाह और बकाला में प्रवास
गुरु तेग बहादुर जी का वैवाहिक जीवन सन् 1634 में करतारपुर निवासी श्री लाल चंद जी की पुत्री माता गुजर कौर के साथ शुरू हुआ।
गुरु हरगोबिंद तथा उनकी धर्मपत्नी नानकी गुरु तेग बहादुर एवं माता गुजरी के साथ सन् 1640 के दशक में अमृतसर जिले के गांव बकाला के अपने पैतृक गांव में रहने लगे थे। गुरु तेग बहादुर भी वहीं 20 वर्ष तक बैठकर सुमिरन करते रहें।
गुरु तेग बहादुर जी द्वरा गुरुगद्दी संभालना
सिखों के आठवें गुरु हरि कृष्ण जी की ज्योति ज्योत समा जाने से पूर्व वह सब भक्तों को "बाबा बकाला" कह कर गुरुगद्दी सौंप गए थे। मृत्यु के समय गुरु हरि कृष्ण जी ने बाबा बकाला की ओर संकेत किया था। तब उस समय कई पाखंडी अपने आप को ही गुरुगद्दी का अधिकारी बताने लगे थे। इस प्रकार वहां 22 ढोंगी गुरु भी बन बैठे थे। जिनमें से धीरमल ढोंगी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हुआ था।
एक वर्ष के बाद मक्खन शाह लुबाना नाम के व्यापारी जो कि गुरु नानक देव से बहुत प्रभावित था उसका सामान से भरा हुआ जहाज आंधी की चपेट में आ गया। आंधी की भयावहता को देखते हुए उन्होंने प्रार्थना की कि यदि उनका जहाज किनारे पर पहुँच जाये तो वह गुरु नानक देव जी की गद्दी पर बैठे सतगुरु को 500 मोहरें भेंट चढ़ाएंगे। गुरु की कृपा से आंधी शांत हो गई और जहाज ठिकाने पर पहुँच गया। अपने किये गए वादे के मुताबिक मक्खन शाह लुबाना मोहरें देने के लिए पंजाब के गांव बाबा बकाला आये थे। लेकिन वहां पहुंचने पर 22 गुरुओं को बैठे देख असमंजस में पड़ गया था। फिर शाह ने सोचा कि गुरु तो अंतर्यामी हैं। अपने आप बता देंगे कि कौन असली है? मक्खन शाह ने हर एक गुरु के आगे दो मोहरें रख कर शीश झुका लिया। दो मोहरे पाकर सभी ढोंगी गुरु खुश हो गए। लेकिन मक्खन शाह के मन को शांति नहीं मिली क्योंकि वादा 500 मोहरें देने की जो थी।
जब उन्होंने सच्चे गुरु को नही देखा तो भक्तों से पूछा कि क्या यहाँ और भी कोई गुरु रहता है? तभी एक भक्त एकांत में बैठे तेग बहादुर जी के बारे में बताया। पहले ही के जैसे यहाँ भी मक्खन शाह ने गुरु को दो ही मोहरें भेंट की। सिर्फ दो मोहरे देख गुरु जी ने कहा, ”गुरु की पूरी अमानत दे ही जाए तो भला है। ये दो मोहरें क्यों? बाकी अमानत कहाँ है ?" यह सुन कर मक्खन शाह लुबाना ने तुरंत 500 मोहरें भेंट कर कोठे की छत पर चढ़ गये तथा ऊँची ऊँची आवाज़ में कपड़ा हिला कर चिल्लाने लगे "गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे, जिसका अर्थ होता है "सच्चा गुरु मिल गया सच्चा गुरु मिल गया" इस प्रकार उस दिन सभी लोगों को पता चल गया कि गुरु तेग बहादुर जी ही सिंखो के नौवें गुरु हैं। फिर गुरु तेग बहादुर 44 वर्ष की उम्र में गुरुगद्दी पर विराजमान हो गए तथा ढोंगियों की दुकाने हमेशा के लिए बंद हो गयी। इन बातों से क्रोधित होकर ढोंगी धीरमल अपने साथियों के साथ गुरु तेग बहादुर जी को मारने के लिए निकल पड़ा था। ढोंगी धीरमल ने गुरु तेग बहादुर जी पर गोली चलवाई। जिससे गुरु तेग बहादुर जी जख्मी हो गए लेकिन हिले नहीं। धीरमल ने सभी भेंट लूट ली तथा सारा सामान लेकर वहां से चल दिया। इस बात का पता जब मक्खन शाह लुबाना को हुआ तब गुरु जी के हुए निरादर का प्रतिशोध लेने के लिए अपने साथियों के साथ मिलकर धीरमल पर आक्रमण किया। धीरमल तथा उसके साथियों को लूटे गए सामान सहित पकड़ कर वापस गुरु तेग बहादुर के पास ले आये। गुरु तेग बहादुर जी ने मानवता दिखाते हुए धीरमल को माफ कर दिया तथा सारे सामान के साथ वापस जाने दिया।
गुरुद्वारा थड़ा साहिब का इतिहास
सन् 1665 में गुरु तेग बहादुर जी मक्खन शाह जी को लेकर बाबा बकाला से अमृतसर श्री हरिमंदिर साहिब के दर्शन के लिए आये। अमृतसर में रहने वाले पुजारियों को लगा कि गुरु जी के आने से उनकी रोजी - रोटी बंद हो जाएगी । इस विचार के साथ उन्होंने हरिमंदिर साहिब के दरवाजे बंद कर दिए और वहां से चले गए। गुरु जी बाहर चबूतरे (थड़े) पर बैठ कर उनके वापस आने का प्रतिक्षा करते रहें। जहाँ पर आज गुरुद्वारा थड़ा साहिब है। काफी समय तक प्रतिक्षा करने के पश्चात जब पुजारी नहीं आया तो गुरु तेग बहादुर बाहर से ही नमस्कार कर वल्ला गांव की तरफ चले गए। गाँव वल्ला में उनका खूब आदर सत्कार हुआ। गांव वल्ला बाद गुरु तेग बहादुर फिर से वापस बाबा बकाला आ गये। फिर बाद में करतारपुर के रास्ते करतारपुर होते हुए किरतपुर पहुंच गए उन्होंने आनंदपुर साहिब की स्थापना की।
आनंदपुर साहिब की स्थापना
गुरु तेग बहादुर जी ने कीरतपुर पहुँच कर 2200 रुपये माखोवाल गाँव की सतलुज नदी के पास ही स्थित कुछ जमीन कहलूर के राजा दीप चंद से खरीद ली। कीरतपुर में खरीदी गयी जमीन पर 16 जून 1665 को चक नानकी नामक गाँव बसाया। बाद में फिर यह गांव आनंदपुर साहिब से मशुहुर हुआ। 6 महीने आते आते ही यह स्थान सिख धर्म का महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।
सिख धर्म का प्रचार
आनंदपुर साहिब के बाद गुरु तेग बहादुर जी मालवा और बांगर में सिख धर्म का प्रचार करते हुए आगे बढ़ गए। वहाँ उन्होंने लोगों की सहायता के लिए पेड़ लगवाए, कुएं खुदवाए और तालाबों की खुदाई करवाई। इसके बाद गुरु तेग बहादुर आगरा, बनारसी गया होते हुए पटना पहुंचे। गुरु तेग बहादुर अपने परिवार को पटना में छोड़ कर ढाका (आज बंगलादेश) गए। ढाका उस समय सिख धर्म के प्रचार का एक प्रमुख केंद्र था। ढाका में ही गुरु तेग बहादुर जी को उनके पुत्र गुरु गोबिंद सिंह के जन्म की खबर मिली। ढाका के बाद गुरु तेग बहादुर जी दो साल तक असम में रहे। कुछ दिन बाद फिर पटना से होते हुए अपने परिवार के साथ पंजाब वापिस आ गए।
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी
उस समय मे कश्मीर के क्रुर मुगल गवर्नर इफ्तार खां वहां के पंडितों के ऊपर अत्याचार कर उन्हें जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बना रहा था। आतंक से भयभीत कश्मीरी पंडित गुरु तेग बहादुर जी की शरण में आनंदपुर आये और मदद की गुहार लगायी। जिस पर गुरु जी ने उन्हें सुझाव दिया कि किसी महान पुरुष का बलिदान ही इस धर्म को बचा सकता है और बिना बलिदान के कुछ नहीं हो सकता। बलिदान से लोगों के खुन मेंं उबाल आएगा और मुगलों के क्रुरता के प्रति लड़ने का जोश जागेगा। तभी मुगलों के जुल्म का नाश होगा। इस विचार पर उनके पुत्र ने उनसे कहा कि बलिदान के लिए आपसे महान कौन हो सकता है। तब गुरु तेग बहादुर जी ने पंडितों से कहा कि आप जाकर मुगल बादशाह से कह दो कि यदि वह मुझे मुसलमान बनाने में सफल रहे तो, आप सब भी खुशी खुशी मुस्लिम धर्म अपना लेंगे। इस बात का पता जब औरंगजेब को चला तो उसने अपने सैनिक हसन अब्दाल को गुरु तेग बहादुर जी को गिरफ्तार करने के लिए भेजा। उसके बाद मुगलो ने गुरु तेग बहादुर को आगरा में गिरफ्तार कर लिया।
दिल्ली पहुँचने के बाद औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर जी को इस्लाम धर्म कबूल करने के लिए कहा। जब गुरु तेग बहादुर जी ने इस्लाम धर्म कबूल करने से मना कर दिया तब औरंगजेब ने गुस्से गुरु तेग बहादुर जी और उनके साथियों को शहीद करने का हुकम दिया। 24 नवम्बर 1675 को गुरु तेग बहादुर जी को उनके तीन सिख साथियों सहित चांदनी चौंक में क्रुरता पूर्वक शहीद कर दिया गया। ये शहीदी बहुत ही विभत्स थी। सबसे पहले भाई मतिदास को आरी से चीर दिया गया फिर भाई सतिदास को जिंदा जला दिया उसके बाद भाई दयाला जी को उबलते हुए पानी में डाल कर शहीद कर दिया। बाद में गुरु तेग बहादुर जी का सीर कलम कर दिया।
गुरु तेग बहादुर जी की क्रूरता पूर्ण शहीदी के बाद वहां बहुत तेज आंधी तूफ़ान आया। जिसका फ़ायदा उठा कर भाई जैता जी ने बड़ी ही फुर्ती से श्री गुरु तेग बहादुर जी का पवित्र शीश उठाकर और श्री आनंदपुर साहिब की तरफ चल दिए। एक सच्चा सिख भाई लक्खी सिंह ने गुरु तेग बहादुर जी का पवित्र धड़ अपने घर ले गया और किसी को इस बात की खबर को छिपाने के लिए अपने मकान को आग लगा कर चोरी छिपे जी की पवित्र देह का संस्कार कर दिया।
गुरु तेग बहादुर के कार्य
गुरु तेग बहादुर ने कई भजनों की रचना की, विशेष रूप से गुरु पवित्र लेखन की नोक के पास शलोक, या दोहे। गोबिंद सहाली ने मुगल साम्राज्य के विभिन्न वर्गों का दौरा करने के बाद गुरु तेग बहादुर को महली में कई सिख मंदिर बनाने का आदेश दिया। गुरु तेग बहादुर की रचनाओं में 116 शबद और 15 राग शामिल हैं, और सिख धर्म में 782 बानी रचना शामिल है।
निष्कर्ष
इस तरह श्री गुरु तेग बहादुर जी ने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। This was the ( Shri Guru Teg Bahadur Ji History In Hindi ) गुरु तेग बहादुर जी की जीवनी जिससे हमें श्री गुरु तेग बहादुर जी बलिदान और उनके जीवन के बारे में बहुत सी बातें जानने को मिली।
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