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Privatization of Bank | बैंकों का निजीकरण

Privatization of Bank | बैंकों का निजीकरण

बैंकों का निजीकरण: नुकसान और फायदे

सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के दो बड़े बैंकों के निजीकरण करने जा रही है और इसके लिए तैयारी कर चुकी है।सरकार पहले ही कई बैंकों का विलय कर चूकी है। पंजाब नेशनल बैंक में ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स और यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, केनरा बैंक में सिंडिकेट बैक, बैंक ऑफ बड़ौदा में देना बैंक और विजया बैंक और इलाहाबाद बैंक का विलय इंडियन बैंक में कर चुकी है। जब इन बैंकों का विलय हो रहा था तो सरकार ने आश्वस्त किया था कि कर्मचारियों की हितों की रक्षा की जाएगी और किसी को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन अब इन बैंकों को बेचने की तैयारी चल रही है। कर्मचारी परेशान है, देश के नागरिक भी परेशान है और लोगों को कई तरह की अशंका उत्पन्न हो रही है। सरकार बैंकिंग कानून संशोधन विधेयक लाकर इन बैंकों का निजीकरण करने जा रही है। इस विधेयक के जरिए बैंकों का निजीकरण करना आसान हो जाएगा।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2021-22 के बजट में विनिवेश कार्यक्रम के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण की घोषणा की थी। बजट के चालू वित्त वर्ष में सरकारी उपक्रमों के विनिवेश से 1.75 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा था।

बैंकों का राष्ट्रीयकरण क्यो जरूरी

बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने से पहले लोगों को कर्ज के लिए स्थानीय साहुकारों, जमींदारों और ब्याज माफियाओं पर निर्भर रहना पड़ता था। कर्ज के बदले यह साहूकार लोग किसानों और गरीबों से उसका जमीन और मूल्यवान वस्तु गलत तरीके से हड़प लेते थे। कांग्रेस सरकार 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया ताकि गरीबों, किसानों और सभी वर्गों को समान रूप से कर्ज मिले। 1969 में इंदिरा गांधी की सरकार ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। उनका भी यही आरोप था कि यह बैंक देश के सभी हिस्सों को आगे बढ़ाने की अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं और सिर्फ़ अपने मालिक सेठों के हाथ की कठपुतलियां बने हुए हैं। इस फ़ैसले को ही बैंक राष्ट्रीयकरण की शुरुआत माना जाता है। इंदिरा गांधी सरकार से पहले भी 1955 में कांग्रेस सरकार स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को अपने हाथ में ले चुकी थी। इसके बाद 1980 में जनता पार्टी के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने देश के छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था।

इन बैंकों के राष्ट्रीयकरण होने के बाद लोगों की माली हालत सुधरी, साहूकारों और जमींदारों से छुटकारा मिला और अपनी जमीनों से हाथ नहीं धोना पड़ा।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण से साहूकारों और गलत इरादा रखने वाले जमींदारों को बहुत नुकसान हुआ, और वह धीरे-धीरे कांग्रेस के विरोधी बनते गए।

बैंकों का निजीकरण क्यों हो रहा है

लेकिन बैंक राष्ट्रीयकरण के 52 साल बाद अब सरकार इस चक्र को उल्टी दिशा में घुमा रही है। जैसा कि मालूम है भाजपा सरकार उन्हीं साहूकारों और जमींदारों के वोट से जीत कर आई है और उनका सम्पूर्ण समर्थन भी है। उनको मदद करने के लिए बैंकों को फिर से नीजीकरण कर रही है। बैंकों के निजीकरण से अप्रत्यक्ष रूप से दलित पिछड़ों का आरक्षण भी खत्म किया जा रहा है। आरक्षण खत्म करना आर एस एस का छुपा हुआ एजेंडा भी है, यह सबको पता है।

सरकार के लिए बोझ?

जैसा कि मालूम है कई उद्योगपति बैंकों का पैसा लेकर विदेश भाग चुके हैं या अपने आप को दिवालिया घोषित कर चुके हैं। इन सब परिस्थितियों में सरकार को बैंकों को बचाने के लिए समय-समय पर पैसे देने पड़ते हैं। ‌हालाकी इन प्राइवेट बैंकों में भी धांधली हुई और उनको बचाने के लिए सरकार को आगे आना पड़ा, यस बैंक का उदाहरण ले सकते हैं। 

पिछले तीन सालों में ही भाजपा सरकार ने इन बैंकों को बचाने के लिए डेढ़ लाख करोड़ रुपए की बेल आउट पूंजी डाल चुकी है और एक लाख करोड़ से अधिक रीकैपिटलाइजेशन बॉंड के जरिए दी है। 

अब सरकार की मंशा साफ़ दिखाई दे रही है। भाजपा सरकार एक लंबी योजना पर काम कर करते हुए इन सरकारी बैंकों की संख्या 28 से घटाकर 12 तक कर दी है। सरकार इन बैंकों की संख्या को और भी तेज़ी से घटाने के लिए कुछ कमज़ोर बैंकों को दूसरे बड़े बैंकों के साथ मिला दिया और बाक़ी को बेचने की तैयारी में है। यही भाजपा सरकार की फॉर्मूला है‌।सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के दो बड़े बैंकों के निजीकरण करने के हर संभव कोशिश कर रही है।

बैंक कर्मचारी और लोग क्या सोचते हैं?

भारत में निजी और सरकारी बैंकों की तरक्की की रफ्तार का अंतर देखें तो पता चलता है कि निजी बैंकों ने करीब-करीब हर मोर्चे पर सरकारी बैंकों को पीछे छोड़ रखा है।

प्राइवेट और सरकारी बैंकों के काम करने के तरीके में अंतर महसूस कर सकते हैं। इन बैंकों के भीतर भी देखी जा सकती है, इनके कर्मचारियों के व्यवहार में भी अंतर होता है। बैंकों के निजीकरण से तकलीफ़ तो होगी लेकिन फिर इन बैंकों को अपनी शर्तों पर काम करने की आज़ादी मिल जाएगी और वह अपने तरीके से काम कर सकेंगे।

लेकिन बैंक कर्मचारी और अधिकारी का अपना ही तर्क है। प्राइवेट बैंक देश हित और नागरिक हित की नहीं  बल्कि अपने  मालिक के हित की रक्षा के लिए सबकुछ करेंगे। इसी आधार को मानकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। इसीलिए इन बैंकों के निजीकरण करने का फैसला न सिर्फ़ कर्मचारियों के लिए बल्कि पूरे देश के लिए ख़तरनाक है।

पिछले कुछ सालों में कई निजी बैंकों में धोखाधड़ी और वित्तीय लेनदेन में हेरा फेरी पाया गया जिसके कारण बैंक डूब गया था। आईसीआईसीआई बैंक, येस बैंक, एक्सिस बैंक और लक्ष्मी विलास बैंक के घोटाले और गड़बड़ियों को देखने से इसकी पुष्टि होती है। ‌

इससे सरकार को बार-बार बैंकों को मदद कर सेहत सुधारने की चिंता से मुक्ति मिल जाएगी और पैसे नहीं देने होंगे।

यह भी सच है कि जब कोई बैंक पूरी तरह डूबने की हालत में पहुँच जाता है तब सरकार को आगे आकर उसे बचाने के लिए पैसे देना पड़ता है और तब यह जिम्मेदारी किसी न किसी सरकारी बैंक के ऊपर थोपी जाती है। यही वजह है कि आज़ादी के बाद से आज तक भारत में कोई सरकारी/शेड्यूल बैंक डूबा नहीं है।

ज्ञात हो कि निजीकरण होने के बाद यह बैंक किसी न किसी उद्योगपति के हाथ में जाएगा। कई बड़े उद्योगपति देश का पैसा खाकर विदेश भाग चुके हैं या अपने आप को दिवालिया घोषित कर चुके हैं। ‌ऐसी परिस्थिति में बैंक डूब जाएगा तो देश की अर्थव्यवस्था बिल्कुल ध्वस्त हो जाएगी।

निजीकरण के बाद मनमानी करेंगे बैंक

बैंकों के निजीकरण से बैंक पूर्ण रूप से व्यावसायिक बन जाएंगे। निजी क्षेत्र के बैंकों को देश और समाज के सामाजिक और आर्थिक सरोकारों से ज्यादा स्वयं के हित से सरोकार होगा। सरकार और आरबीआइ कितने भी दावे करे उनका नियंत्रण निजी क्षेत्र के बैंकों पर न्यूनतम ही रहेगा। इसका ज्वलंत उदाहरण प्रधानमंत्री जनधन योजना तथा प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के क्रियान्वयन के समय लोग देख चुके हैं। इनमें निजी बैंकों का सहयोग राष्ट्रीयकृत बैंकों से काफी कम रहा। वर्तमान महामारी के दौर में हम देख रहे हैं कि निजी अस्पताल तथा अन्य निजी संस्थानों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रहा। निजी अस्पतालों ने एक तरह से अराजकता का माहौल पैदा कर दिया था। इससे भी आगे बढ़ कर वर्तमान में हम सोशल मीडिया से जुड़ी विदेशी कंपनियों की दादागिरी को देख ही रहे हैं। वे देश के नियमों को धता बता कर इस देश में व्यवसाय करना चाहती हैं। बैंकों के निजीकरण से भी ऐसे ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति निर्मित होने वाली है।

सुरक्षित नहीं रहेगी धन राशि

व्यापार करना सरकार का काम नहीं है, यह भाजपा का कहना है। एक सीमा तक यह बात सही है कि व्यापार करना सरकार का काम नहीं है, लेकिन नागरिकों को मूलभूत सुविधाएं प्रदान करना सरकार की जिम्मेदारी है। नागरिकों ने ही सरकार को चुन कर भेजा है। 1969 के आस-पास बहुत से निजी बैंक डूब गए थे। ये बैंक सिर्फ पूंजीपतियों को ही ऋण प्रदान करते थे। आमजन की पहुंच से भी बैंक बहुत दूर थे। जो बैंक डूब रहे थे, उनमें आमजन की बहुत सारी राशि डूब जाती थी। अब भी हालात यही हैं। यस बैंक, जैसी कई घटनाएं हुई हैं। अगर सरकारी बैंकों का निजीकरण किया गया तो आमजन की पूंजी सुरक्षित नहीं रहेगी। अगर कोई बैंक डूबता है तो सिर्फ 5 लाख तक का बीमा प्रत्येक खाते के लिए निर्धारित किया गया है। अगर कोई व्यक्ति अपनी जीवन भर की जमा पूंजी बैंक में रखता है और वह बैंक डूबता है तो उसे मात्र 5 लाख रुपए की राशि ही वापस मिलेगी। भारत की बड़ी आबादी है जो पेंशन और अन्य सरकारी लाभ पाने के लिए बैंकों से जुड़ी हुई है। निजी बैंकों में न्यूनतम राशि 5000 से अधिक रखना अनिवार्य है। अगर ऐसा हुआ तो जनता को भारी तकलीफ हो सकती है। सरकारी बैंकों की एक समस्या एनपीए है, जिसके लिए सरकार कड़ी कार्रवाई की कोई छूट नहीं देती। कर्ज माफ कर दिए जाते हैं, जिसका वित्तीय प्रभाव बैंकों पर पड़ता है, और भारी नुक्सान होता है। सरकार अपनी परोपकारी योजनाएं सरकारी बैंकों के माध्यम से ही करती है, जिससे बैंक स्वतंत्र हो कर कार्य नहीं कर पाते। बैंकों को स्वतंत्रता की आवश्यकता है जिससे वह स्वतंत्र होकर काम कर सके। निजीकरण निजी करण एकमात्र विकल्प नहीं। बैंकों के एनपीए रोकने के लिए सख्त कदम उठाने की जरूरत है, बैंकों के निजीकरण करना देश के लिए खतरनाक होगा। 

सरकारी बैंकों पर ज्यादा भरोसा

सरकारी बैंकों के निजीकरण की खबरें आए दिन सुनने में आती हैं। सरकारी बैंक आम आदमी, ग्रामीणों, छोटे दुकानदारों एवं किसानों के हितों को ध्यान रखते हुए न्यूनतम सेवा शुल्क रखते हैं जो निजीकरण के बाद जारी नहीं रहेगा। निजी बैंक‌ अपने फायदे को देखते हुए ऐसे शहरों एवं कस्बों में शाखा खोलते जहां अधिकांश लाभ मिल सके। जबकि सरकारी बैंक शहरों के साथ दूर-दराज के गांवों में भी अपनी शाखा खोल कर ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देते हैं। निजीकरण के बाद ये बैंक बिना फायदे वाले कार्यों को बंद भी कर सकते हैं। हम यस बैंक का पतन देख चुके हैं। ग्राहकों में अभी यह भाव है कि उनका पैसा सरकारी बैंकों में सुरक्षित है। सरकारी बैंकों में बढ़ते एनपीए रोकने के लिए भारत सरकार को बैंकों के साथ मिल कर कड़े कदम उठाने चाहिए न की बैंकों का निजीकरण करना चाहिए।

युवा विरोधी निर्णय

वर्तमान सरकार के कार्यकाल में बेरोजगारी दर अपने उच्च स्तर पर है। युवा वर्ग रोजगार के लिए दर दर भटक रहे हैं। करोड़ों की संख्या में युवा बेरोजगार हो गए। सरकारी बैंक रोजगार का सबसे बड़ा उपक्रम हैं जिससे हर वर्ग को आरक्षण के हिसाब से नौकरी मिलती है दो। आइबीपीएस के माध्यम से सरकारी बैंकों के लिए बहुत से पदों पर चयन होता है, लेकिन बैंकों का निजीकरण होने से ये रोजगार भी खत्म हो जाएगा। निजी बैंकों में ग्रामीण क्षेत्र के लोगों का चयन ही मुश्किल है। निजीकरण बैंकों के वर्तमान बैंक कर्मियों के लिए भी हानिकारक हो सकता है, निजीकरण के बाद उनकी छंटनी भी हो सकती है। निजीकरण का निर्णय पूरी तरह युवाओं के भविष्य के लिए खतरनाक है।

पनप सकता है ब्याज माफिया

सरकारी बैंकों का निजीकरण से सिर्फ सरकार, नौकरीपेशा और कॉरपोरेट घरानों को फायदा होगा। बैंकों के निजीकरण से आम लोग, छोटे कारोबारी, किसान आदि के लिए परेशानी का कारण बनेगा। साथ ही उनके बैंकिंग सेक्टर से बाहर होने की संभावना भी बढ़ जाएगी। वे फिर से ब्याज माफिया की चंगुल में फंस सकते हैं, क्योंकि निजी बैंकों का मकसद हमेशा सिर्फ ऐसी लाभकारी योजनाओं में पैसा लगाना होता है, जहां उसे अधिक से अधिक मुनाफा मिल सके।

निजीकरण के ख़िलाफ़ बैंककर्मी

देश के सबसे बड़े बैंक कर्मचारी संगठन यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस ने हड़ताल का आह्वान किया है और समय-समय पर हड़ताल करते रहते हैं। इस फोरम में भारत के बैंक कर्मचारियों और अफसरों के नौ संगठन शामिल हैं जो बैंकों के निजीकरण का विरोध कर रहे है।

बैंक कर्मियों की हड़ताल की सबसे बड़ी वजह सरकार का वह एलान है जिसमें वो आईडीबीआई बैंक के अलावा दो और सरकारी बैंकों का निजीकरण करने जा रही है। सभी बैंक यूनियनें निजीकरण का विरोध कर रही हैं। 

किसान नेता राकेश टिकैत ने भी बैंक कर्मियों का साथ दिया है और निजीकरण का विरोध किया है। और लोगों से बैंक कर्मियों को साथ देने का आह्वान किया है। ‌

rakesh tikait

hansraj meena

सामाजिक कार्यकर्ता हंसराज मीणा ने भी बैंकों के निजीकरण के खिलाफ आवाज उठाना है और लोगों को जोड़ने के लिए आह्वान किया है। बैंकों के निजीकरण से सबसे ज्यादा नुकसान दलित पिछड़ों का होगा जिन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।

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