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चमकौर का युद्ध | शहीदी सप्ताह (Shaheedi Saptah) | चमकौर की लड़ाई

चमकौर का युद्ध | शहीदी सप्ताह

चमकौर का युद्ध | शहीदी सप्ताह


सिखों के दसवें और अंतिम गुरु श्री गोबिंद सिंहजी के परिवार की शहादत को इतिहास की सबसे बड़ी शहादत माना जाता है। धर्म व आम जनता की रक्षा के लिए दी गई इस शहादत के जैसा कोई दूसरा उदाहरण सुनने या पढ़ने को नहीं मिलेगा।

इस शहादत को शहीदी सप्ताह के नाम से याद किया जाता है क्योंकि एक सप्ताह के अन्दर ही गुरु गोविंद सिंह जी के पूरा परिवार को शहीद कर दिया गया था।

नानकशाही कैलेंडर के अनुसार शहीदी सप्ताह 20 दिसंबर से लेकर 27 दिसंबर तक मनाया जाता हैं। शहीदी सप्ताह के दिनों में गुरुद्वारों से लेकर घरों तक में कीर्तन-पाठ बड़े स्तर पर किया जाता है और गुरु गोविंद सिंह जी के परिवार के कुर्बानियों को याद किया जाता है। सिख अपने बच्चों को गुरु साहिब के परिवार की शहादत के बारे में बताते।


शहीदी सप्ताह

कड़कड़ाती सर्दी के दिनों में माता गुजरी व साहिबजादों की शहादत इतिहास का सबसे बड़ा शहादत है।

1704 ईस्वी के दिसंबर महीने के इसी कड़कड़ाती ठंड के बीच माता गुजरी और दोनों छोटे साहिबजादों को सरहिंद के ठंड बुर्ज में खुले आसमान के नीचे मुगल सैनिकों द्वारा कैद किया गया था। 

सिख समाज के इतिहास में इस पूरे हफ्ते क्या हुआ था जानिए:

20 दिसंबर 1704

मुगल सैनिकों ने अचानक आनंदपुर साहिब के किले पर हमला कर दिया। गुरु गोबिंद सिंह जी मुगल सेना से लड़ना चाहते थे, लेकिन अन्य सिख लड़ाकों ने उन्हें वहां से निकल जाने के लिए कहा। इसके बाद गुरु गोबिंद सिंह के परिवार सहित अन्य सिखों के साथ आनंदपुर साहिब के किले को छोड़ दिया और वहां से निकल गएं।

21 दिसंबर 1704

जब गुरु गोविंद सिंह जी अपने साथियों के साथ सरसा नदी को पार करने लगें लेकिन पानी का बहाव तेज होने के कारण पूरा परिवार एक दूसरे से बिछड़ गए। बिछड़ने के बाद गुरु गोबिंद सिंह अपने दो बड़े साहिबजादे बाबा अजित सिंह व बाबा जुझार सिंह को साथ चमकौर पहुंच गए। दुसरी तरफ माता गुजरी, दोनों छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह व बाबा फतेह सिंह और गुरु साहिब के सेवक रहे गंगू के साथ अन्य सिखों से अलग हो गए। इसके बाद गंगू इन सभी को अपने घर ले गया और गुरु गोविंद सिंह जी के साथ धोखा किया उसने चुपके से सरहंद के नवाज वजीर खान को जानकारी दे दी कि माता गुजरी और दो साहिबजादे उसके पास है। पता चलते ही वजीर खान ने सैनिक भेजकर माता गुजरी और दोनों छोटे साहिबजादों को कैद कर लिया।

22 दिसंबर 1704

इस दिन चमकौर की लड़ाई हुई जिसमें गुरु गोविंद सिंह जी की सिख और मुगलों सेना आमने-सामने थी। कहा जाता है कि मुगल सेना बड़ी संख्या (दस लाख) में थे लेकिन सिख बहुत ही कम। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने सैनिकों में हौंसला भरा और मुगलों से डटकर मुकाबला करने को कहा। इसके बाद सिखों ने मुगलों से लोहा लिया और उन्हें नाको चने चबवाने को मजबूर कर दिया‌। 

23 दिसंबर 1704

यह भयानक युद्ध अगले दिन भी चलता रहा और सिख बहादूरी से मुगलों से लड़ते रहें। युद्ध में सिखों को शहीद होता देखा गुरु गोविंद साहब के दोनों बड़े साहिबजादों बाबा अजित सिंह उम्र 18 साल व बाबा जुझार सिंह उम्र 14 साल ने एक-एक कर युद्ध में जाने के लिए गुरु गोविंद साहब जी से अनुमती मांगी। गुरु गोविंद सिंह साहिब ने उन्हें अनुमति दी और दोनों भाईयों ने एक के बाद एक मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतारना शुरू किया लेकिन मुगलों के भारी तादाद के सामने ठीक नहीं पाएं और  दोनों भी वीरगति को प्राप्त हो गए।

24 दिसंबर 1704

गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी भी इस युद्ध में उतरना चाहते थे लेकिन साथियों ने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए गुरु गोविंद सिंह साहिब जी को युद्ध में उतरने से रोक दिया और उन्हें वहां से निकल जाने को कहा। सिख साथियों की बात मानते हुए मजबूरन गुरु साहिब को वहां से निकलना पड़ा। गुरु साहिब के जाने के बाद बाकी बचे हुए सिख सैनिक मैदान में लड़ते हुए शहीद हो गए।

25 दिसंबर 1704

चमकौर से निकलने के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी एक गांव में पहुंचे जहां उन्हें बीबी हरशरन कौर से मुलाकात हुई, बीबी हरशरण कौर गुरु साहिब को अपना आदर्श मानती थीं। उन्हें जब युद्ध में शहीद हुए सिखों व साहिबजादों के बारे में जानकारी मिली तो वह चुपके से चमकौर पहुंचीं और शहीदों का अंतिम संस्कार करना शुरू कर दिया जबकि मुगल यह नहीं चाहते थे। मुगल चाहते थे कि सिखों के लाशों को चील-गिद्द खाएं। जैसे ही मुगल सैनिकों ने बीबी हरशरन कौर को युद्ध के मैदान में देखा, उन्हें भी आग के हवाले कर शहीद कर दिया।

26 दिसंबर 1704

सरहिंद के नवाब वजीर खान ने माता गुजरी और दोनों छोटे साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह जिनकी उम्र मात्र 9 साल व बाबा फतेह सिंह उम्र मात्र 7 साल थी, सभी को खुले आसमान के नीचे कैद कर दिया। वजीर खान ने दोनों छोटे साहिबजादों को अपनी कचहरी में बुलाया और डरा-धमकाकर उन्हें धर्म परिवर्तन कर इस्लाम कबूल करने के लिए कहा लेकिन दोनों साहिबजादों ने ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ के जयकारे लगाने लगे और अपना धर्म परिवर्तन करने से मना कर दिया। वजीर खान ने दोनों साहिबजादे को धमकी देते हुए कहा कि कल तक या तो अपना धर्म परिवर्तन करो या मरने के लिए तैयार रहो।

27 दिसंबर 1704

ठंडे किले में कैद माता गुजरी ने दोनों साहिबजादों को बेहद प्यार से तैयार कर दुसरे दिन दोबारा से वजीर खान की कचहरी में भेजा। यहां फिर से वजीर खान ने उन्हें धर्म परिवर्तन करने के लिए कहा लेकिन छोटे साहिबजादों ने मना कर दिया और उन्होंने फिर से जयकारे लगाने लगे। यह सुन वजीर खान गुस्से से तिलमिला उठा और दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवार में चिनवाने का हुक्म दिया। उसके बाद मुगल सैनिकों ने दोनों साहिबजादों जिंदा ही दोनों भाईयों को ईंट की दीवार चुन कर शहीद कर दिया। जैसे ही यह दुख भरी खबर माता गुजरी के पास पहुंची, उन्होंने भी अपने प्राण त्याग दिए।

इस तरह गुरु गोविंद सिंह जी के परिवार ने क्रुर मुगल बादशाह से लड़ते हुए शहादत दिया। उन्होंने अपने धर्म और समाज की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।


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