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निजीकरण (Privatisation in India): न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी

निजीकरण | Privatisation in India | Privatization

निजीकरण (Privatisation in India): न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी| आरक्षण खत्म करने के चक्कर में देश की बर्बादी

आजादी के मात्र 70 साल में ही बाजी पलट गई, 1947 से हम आगे बढ़ रहे थे अब फिर से जहाँ से चले थे उसी जगह पहुंच गए।

संविधान में दलित और शोषित वर्ग के उत्थान के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया जिससे दबंग वर्गों को नाराजगी हुई। दलित और शोषित वर्ग का उत्थान उनसे देखा नहीं गया लेकिन सवर्ण कुछ कर भी नहीं पाए। 70 सालों तक एक ऐसी सरकार रही जो सभी को साथ लेकर चलती रही और सब का विकास करती रही।‌

2014 में परिवर्तन के बाद बहुमत में सवर्णों की सरकार है लेकिन संविधान में संशोधन करने की उनकी हिम्मत नहीं क्योंकि इससे 75% आबादी जागरूक हो जाएंगे और सरकार का विद्रोह करेंगे। जनता अगर एकजुट विरोध करें तो सरकार 1 दिन भी नहीं चलने वाली है।

सरकार साजिश के तहत धीरे-धीरे आरक्षण को खत्म कर रही है। कहावत है "ना रहेगी बांस न बजेगी बांसुरी", इसी कहावत पर काम करते हुए सरकार धीरे-धीरे सारे सरकारी नौकरी वाले संस्थान को निजी हाथों में सौंप रही है। निजी संस्थान आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। सरकारी नौकरियों में कांट्रेक्ट पर कम दिनों के लिए बहाल किया जा रहा है ताकि निजीकरण के बाद उद्योगपति अपनी मर्जी से उन्हें हटा सकें।

आजादी के बाद भारत का विकास

1947 जब देश आजाद हुआ तो देश में करीब  562 राजवाड़े थे जहां अभी भी राजाओं का शासन था। सरकार और उनके मंत्री देश की इन रियासतों को आजाद भारत का हिस्सा बनाने के लिए दिन रात परेशान थे।

भारत सरकार ने साम दाम दंड भेद की नीति अपनाते हुए इन देसी राजाओं का विलय करने के लिए काम किया। देश की सारी संपत्ति उन्हीं राजाओं के हाथ में थी।

कुछ देशी राजवाड़े ने नखरे भी दिखाए, मगर सरकार की कूटनीति और चतुर नीति से इन्हें आजाद भारत का हिस्सा बनने को मजबूर कर दिया। 562 देसी रजवाड़ों के विलय के बाद भारत एक साफ स्वतंत्र लोकतंत्र वाला देश बन गया।

राजवाड़ों के विलय के साथ ही देश की सारी संपत्ति सिमट कर गणतांत्रिक पद्धति वाले भारत सरकार के पास आ गई। सरकार का खजाना भरने लगा जिससे देश में उद्योग धंधे और विकास के कार्यों में गति मिली।

देश में धीरे धीरे रेल, औद्योगिक कारखानों तथा बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया जिससे एक शक्तिशाली भारत का निर्माण हुआ। बड़े-बड़े इस्पात के कारखाने, डैम, स्कूल कॉलेज, यूनिवर्सिटी और अस्पताल का निर्माण किया गया। इसरो और भाभा एटॉमिक प्लांट जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों का निर्माण किया गया। राष्ट्रीयकृत संस्थानों में लोगों को आरक्षण के आधार पर भर्ती किया गया जिससे लोगों का उत्थान हुआ। दलित शोषित वर्ग भी सिर उठा कर जीना सीख गए और दबंगों की गुलामी करने से मना कर दिया।

औद्योगिक विकास और राष्ट्रीयकरण के कारण सबसे ज्यादा नुकसान साहूकारों और भूमि माफियाओं को हुआ। लोगों ने साहूकारों से कर्ज लेने के लिए मना कर दिया जिससे उनका व्यापार चौपट हो गया। ‌लोग अब सरकारी बैंकों से लोन लेने लगे थे। जमींदारों के यहां बेकारी करने के बजाय लोग सरकारी नौकरी करने लगे थे। जमींदारों को मजदूरों की कमी हुई जिससे भी वह भारत सरकार की नीतियों के खिलाफ हो गए और सरकार के खिलाफ साजिश करते रहे।

2014 के बाद का भारत

2014 के बाद समय और विचार ने करवट ली और देश की बागडोर कुछ राजनीतिक महत्वाकांक्षा पाले, दलित शोषित विरोधी और  पूंजीवादी व्यवस्था वालों के हाथ में चली गई।

लाभ और मुनाफे की व्यापारिक सोच पर आधारित ये राजनेता देश को फिर से 1947 से पीछे ले जाना चाहते है। वे धीरे धीरे सरकारी संस्था दो प्रमुख निजी हाथों में सौंप कर पुनः रियासतों/उद्योगपतियों/साहुकारों के हाथ में देना शुरू कर दिया है।

निजीकरण की आड़ में देश की सारी संपत्ति चन्द पूंजीपति घरानों को सौंप देने की घृणित चाल चली जा रही है। लेकिन उसके बाद क्या होगा?

निजीकरण के बाद निश्चित ही लोकतंत्र का वजूद खत्म हो जाएगा। देश की व्यवस्था पूंजीपतियों के अधीन हो जाएगा जो परिवर्तित राजाओं की शक्ल में सामने उभर कर आयेंगे। ये बदले हुए राजवाड़े पहले वाले खूंखार राजाओं से ज्यादा बेरहम और सख्त होंगे।‌ इसका ताजा उदाहरण बड़े बड़े मॉल में काम करने वाले कर्मचारियों से जान सकते हैं। ‌कम पैसों पर बारह- बारह घंटे नौकरी करनी पड़ रही है। प्राइवेट कंपनियों में काम करने वाले लोगों के मैनेजर साहूकारों के मुनीम की तरह व्यवहार कर रहे हैं।

निजीकरण फिर से रियासती करण का साजिश

कुछ समय बाद धिरे धिरे सरकारी अस्पतालों, स्कूलों, कालेजों भी घाटे के नाम पर निजी हाथों में दे दिया जायेगा।

सरकार घाटे का बहाना बना कर सरकारी संस्थानों को क्यों बेच रही है? अगर प्रबंधन सही नहीं तो सरकार को चाहिए कि उसे ठीक करे। व्यवस्था में सुधार करने के बजाय अनहितकारी फैसले लेकर सरकारें अपनी दायित्व से भाग रही है। सरकार की इस गलत नीतियों से जनता का शोषण-दमन ही होगा।

निजीकरण एक सुनियोजित साजिश

सरकार की नीति है कि पहले सरकारी संस्थानों को ठीक से काम न करने दो। कंपनियों को घाटे में जाने दो फिर बदनाम करो। लोगों को घाटे के बारे में भ्रम फैलाओ जिससे निजीकरण करने पर कोई बोले नहीं। उसके बाद धीरे-धीरे इन कंपनियों को अपने उद्योगपती मित्रों को बेच दो। ये उद्योगपती चुनाव के भारी भरकम फंडिंग सरकार को मदद करते हैं।

बड़ी आबादी के साथ साजिश

बिहार (Bihar) के लोगों को पिछड़ेपन का शिकार बनाया जा रहा है। राज्यों में उद्योग धंधे नहीं लगाया गया, धीरे-धीरे सारे चीनी मिल को बंद कर दिया गया था। बिहारी युवाओं को नौकरी की तलाश में देश के अन्य राज्यों में पलायन करना पड़ा। दिल्ली (Delhi) की की गद्दी पर बैठे हुए सरकार को देश की चिंता नहीं और उद्योग धंधों को गुजरात (Gujrat) में ट्रांसफर किए जा रहे हैं। एक बड़ी आबादी को रोजगार धंधों से वंचित किया जा रहा है।

उद्योगपती विदेश भाग जाएंगे

ये उद्योगपति धीरे-धीरे देश के बाहर अपना साम्राज्य  बढ़ा रहें हैं। विदेशों में अपने लिए घर और दफ्तर खोल रहे हैं। ‌ विदेशी वस्तुओं के आयात के नाम पर देश के पैसा बाहर भेजा जा रहा है। भारत में उद्योगपतियों का इतिहास है कि वे बैंकों का पैसा डुबोकर विदेश भाग जाते हैं। ये उद्योगपती भी एक न एक दिन भागेंगे, सारे कंपनियों को डुबोकर भागेंगे। लोग फिर से बेरोजगार होंगे देश में भुखमरी बढ़ेंगी। किंगफिशर,जेट एयरवेज जैसे एयरलाइंस का डूबना एक उदाहरण है। सहारा इंडिया समुह द्वारा लोग पैसा हजम, रिलायंस समूह के अनिल अंबानी की कंपनी दिवालिया हो गई। नीरव मोदी मेहुल चौकसी जैसे लोगों का पैसा खाकर विदेश में भागे हुए हैं। सोचिए क्या होगा जब ये उद्योगपति कंपनियों को डुबोकर बैंक का पैसा खाकर विदेश भाग जाएंगे? 

बिखरे हुए वोटर

देश के 75% आबादी अलग-अलग जातियों और धर्म में बंटे हुए हैं। देश में चल रही साजिश के बारे में उन्हें पता है फिर भी अपने अपने जाति के नेताओं को वोट देकर इस्तेमाल हो रहे हैं। जातिवादी नेताओं दबंगों के साथ मिलना हाथ मिलाकर अय्याशी करते हैं और अपने ही वोटरों का नुकसान करते हैं। सरकार निजीकरण के नाम पर उनके आरक्षण खत्म कर रहे हैं लेकिन यह जातिवादी देता कभी आवाज नहीं उठा सके। ‌ देश में दलितों के तथाकथित नेता भी इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। किसी भी दलित नेता में दम नहीं कि सरकार की नीतियों का विरोध कर सकें।

दलित शोषित वर्गों को जागरूक होना पड़ेगा, उदय एकजुट होकर बदलाव के लिए वोट करना होगा।‌ नई सरकार में सवर्णों का भी भला नहीं हो रहा है, इसमें सिर्फ कुछ चाटुकार लोगों का ही भला हो रहा है बाकी सभी परेशान है। छोटे व्यापारियों का उद्योग धंधा चौपट हो रहा है और वह रोजी-रोटी के तलाश में भटक रहे। सभी लोगों को जाति धर्म भूल कर एकजुट होकर अपने देश को बदलाव के लिए वोट करना होगा।


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