जब नेतृत्व अंधकार में हो: लोकतंत्र की सबसे बड़ी परीक्षा
लेखक: अमरनाथ कुमार
एक लोकतांत्रिक राष्ट्र की आत्मा उसके नेतृत्व में बसती है। वही नेतृत्व जनता की आकांक्षाओं को दिशा देता है, और उसी के हाथों में देश की दशा बदलने की शक्ति होती है। लेकिन जब यह नेतृत्व ज्ञानहीन, अनुभवहीन और अहंकार से भरा हो — तब लोकतंत्र अपने सबसे गहरे संकट से गुजरता है।
नेता या केवल सिंहासनधारी?
भ्रष्टों की जयजयकार, ईमानदारों की हार
जब प्रधानमंत्री खुद ज्ञान और नैतिकता से वंचित हो, तो उसकी सत्ता अवसरवादियों, माफियाओं और भ्रष्ट तंत्र के लिए खुले दरवाज़े जैसी होती है। ऐसी व्यवस्था में ईमानदारी एक अपराध बन जाती है और चाटुकारिता पुरस्कार। धीरे-धीरे सत्ता के इर्द-गिर्द एक संगठित 'राजनीतिक गिरोह' बनता है, जिसका मकसद केवल निजी हित होता है, न कि राष्ट्र सेवा।
मीडिया की चुप्पी और जनमानस का भ्रम
जब मीडिया, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना गया है, सत्ता के आगे घुटने टेक दे, तब जनता को सच्चाई की जगह झूठे सपने दिखाए जाते हैं। धर्म, राष्ट्रवाद, और भावनात्मक मुद्दों का ऐसा ताना-बाना बुना जाता है कि जनता असली मुद्दों को पहचान ही नहीं पाती। बेरोज़गारी, महंगाई, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सवाल पीछे छूट जाते हैं।
भीड़ का शासन, संविधान का मौन
जब संसद विचार-विमर्श का केंद्र नहीं, तालियों और नारों का अखाड़ा बन जाए, और जब न्याय व्यवस्था को दबाव में चलाया जाए, तब सवाल उठता है — क्या हम अब भी लोकतंत्र में हैं, या भीड़तंत्र के युग में प्रवेश कर चुके हैं?
रास्ता क्या है?
- नेतृत्व के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य की जाए।
- वोट देने से पहले नागरिक नीति, कार्य और जवाबदेही को आधार बनाएं।
- मीडिया को सरकार से स्वतंत्र और उत्तरदायी बनाया जाए।
- युवाओं को जिम्मेदारी के साथ राजनीति में भागीदारी करनी चाहिए।
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